Thursday, July 31, 2008

माता भगवती देवी शर्मा

स्नेह सलिला, परम वन्दनीया, शक्तिस्वरूपा, सजल श्रद्धा की प्रतिमूर्ति माता भगवती देवी शर्मा आश्विन कृष्ण चतुर्थी, संवत १९८२ को (तदनुसार २० सितम्बर १९२६) को प्रातः आठ बजे आगरा नगर के श्री जशवंत राव जी के घर चौथी संतान के रूप में जन्मीं ।

ऐश्वर्य सम्पन्न घराने में पली-बढ़ी माताजी का विवाह आगरा से २५ किमी.दूर आँवलखेड़ा में एक जमींदार परिवार पं.रूपकिशोर के सुपुत्र गायत्री साधक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्रीराम मत्त (आज के युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचर्य) के साथ हुआ । सन् १९४३ में विवाह के बाद माता जी ससुराल पहुँची, जहाँ आचार्य जी ओढ़ी हुई गरीबी का जीवन जी रहे थे । जैसा पति का जीवन वैसा ही अपना जीवन, जहाँ उनका समर्पण उसी के प्रति अपना भी समर्पण, इसी संकल्प के साथ वे अपने धर्म निर्वाह में जुट गयीं ।

उन दिनों आचार्य जी के २४ महापुरश्चरणों की शृंखलाएँ चल रही थीं । वे जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह कर रहे थे । माता जी ने जौ की रोटी व छाछ तैयार करने से अपने पारिवारिक जीवन की शुरुआत की । कुछ ही वर्ष आँवलखेड़ा में बीते थे कि माताजी अपने जीवन सखा के साथ मथुरा आ गयीं । यहाँ पूज्य गुरुदेव अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका अखण्ड ज्योति का सम्पादन करते, पाठकों की वैचारिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक आदि समस्याओं का समाधान पत्र व्यवहार एवं पत्रिका के माध्यम से करते और माताजी आगन्तुकों का आतिथ्य कर घर में जो कुछ था, उसी से उनकी व्यवस्था जुटातीं ।

मात्र २०० रुपये की आय में दो बच्चे, एक माँ, स्वयं दोनों इस तरह कुल पाँच व्यक्तियों के साथ प्रत्येक माह अनेक आने-जाने वालों, अतिथियों का हँसी-खुशी से सेवा सत्कार करना, उनके सुख-दुःख को सुनना तथा सुघर गृहणी की भूमिका निभाना केवल माताजी केवश का था । जो भी आता उसे अपने घर जैसा लगता । आधी रात में दस्तक देने वाले को भी माताजी बिना भोजन किये सोने न देतीं । माताजी की संवेदना का एक स्पर्श पाकर व्यक्ति निहाल हो जाता ।

प्रारंभिक दिनों में अखण्ड ज्योति पत्रिका घर के बने कागज पर हैण्ड प्रेस से छपती थी । माताजी उसके लिए हाथ से कूटकर कागज तैयार करतीं उसे सुखातीं, फिर पैर से चलने वाली हैण्ड प्रेस द्वारा खुद पत्रिका छापतीं । उन पर पते लिखकर डिस्पैच करतीं । यह सभी कार्य माताजी की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया था । बच्चों की देखभाल, पढ़ाई-लिखाई आदि की जिम्मेदारी थी ही । इसी श्रमपूर्ण जीवन ने माताजी को आगे चलकर परम वन्दनीया माताजी के भावभरे वात्सल्यपूर्ण संबोधन से नवाजा और वे जगन्माता बन गयीं ।

माताजी कहती-'हमारा अपना कुछ नहीं, सब कुछ हमारे आराध्य का है, समाज राष्ट्र के लिए समपत है ।' अवसर आने पर वे इसे सत्य कर दिखाती थीं । उन दिनों आचार्य श्री के मस्तिष्क में गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना का तानाबाना चल रहा था, परन्तु पैसे का अभाव था । ऐसे समय में माताजी ने अपनी ओर से पहल करके अपने पिता द्वारा प्रदत्त सारे जेवर बचकर निर्माण कार्य में लगाने के लिए सौंप दिये । जो आज असंख्य अनुदानों-वरदानों एवं करोड़ों परिजनों के रूप में फल-फूल रहा है ।

साधारण गृहणी एवं अपने पति के प्रति समपत श्रमशील महिला के रूप में देखने वाली माताजी का असाधारण स्वरूप अंदर ही अंदर पकता तो रहा, परन्तु उभर कर तब आया, जब आचार्यश्री सन् १९५९ में दो वर्ष के प्रवास पर हिमालय तप-साधना के लिए गये । माताजी के जीवन का यह अकेलापन कठिनाइयों भरा था, परन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, अपितु अपने वर्तमान दायित्वों का निर्वाह करते हुए उन्होंने अखण्ड ज्योति पत्रिका का लेखन, सम्पादन एवं पाठकों का मार्गदर्शन आदि वे सभी कार्य बड़ी कुशलता से करना शुरु किया, जो आचार्यश्री छोड़कर गये थे । संपादन के प्रति उनके सूझबूझ भरे दृष्टिकोण ने दो ही वर्ष में अखण्ड ज्योति के पाठकों की संख्या कई गुना बढ़ा दी । अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना, युग शक्ति गायत्री, महिला जागृति अभियान सहित कुल १३ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक १४ लाख पाठकों का व्यक्तित्व निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण एवं राष्ट्र-विश्व निर्माण संबंधी मार्गदर्शन करती रहीं ।

सन् १९७१ में युग तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार की स्थापना हो चुकी थी । गायत्री परिवार लाखों से करोड़ों की संख्या में पहुँच रहा था । माताजी ने जहाँ कुशल संगठक के रूप में इस परिवार की बागडोर सँभाला, वहीं उन्होंने नारी जागरण आन्दोलन द्वारा देश-विदेश में नारियों को पर्दाप्रथा, मूढ़मान्यताओं से निकालकर उन्हें न केवल घर, परिवार समाज में समुचित सम्मान दिलाया, अपितु धर्म-अध्यात्म से जोड़कर वैदिक कर्मकाण्ड परंपरा में दीक्षित एवं पारंगत करके उन्हें ब्रह्मवादिनी की भूमिका संचालित करने योग्य बनाया । आज उन्हीं के पुरुषार्थ से देश-विदेश की लाखों नारियाँ यज्ञ संस्कारों का सफल संचालन कर रही हैं ।

विकट से विकट परिस्थितियों में भी माताजी संघर्ष पथ पर डटी रहीं । जून १९९० में आचार्य श्री के महाप्रयाण के बाद की घड़ियाँ कुछ ऐसी ही कठिन थीं । विक्षोभ की व्याकुलता तो थी, परअसीम संतुलन को बनाये रखा । अपने करोड़ों परिजनों एवं हजारों आश्रमवासियों को ढाँढस बँधाया और संगठन की मजबूती एवं विस्तार के साथ उसके उद्देश्य को सम्पूर्ण मानवता तक पहुँचाने के लिए अक्टूबर ९० में ही शरद पूर्णिमा को नए शंखनाद की घोषणा की । १५ लाख लोगों के विराट् जन समूह को आश्वस्त करते हुए कहा- 'यह दैवी शक्ति द्वारा संचालित मिशन आगे ही बढ़ता जायेगा । कोई भी झंझावत इसे हिला नहीं सकेगा । देवसंस्कृति-भारतीय संस्कृति, विश्व संस्कृति बनेगी ।'

इसी के बाद माताजी अपने नवीन कार्यक्रम में जुट गयी । जहाँ एक ओर पूरे विश्व में सम्प्रदायवाद, जातिवाद दहाड़ रहा था, वहीं उन्होंने तथाकथित धर्माडम्बरियों को ललकारते हुए कुशल सूझबूझ से २६ अश्वमेध यज्ञों के माध्यम से गायत्री (सत्चिन्तन),यज्ञ (सत्कर्म) के निमित्त वातावरण बनाया, सभी मतों, धर्मों, जातियों के लोगों को एक मंच पर लाकर समाज के लिए सोचने हेतु संकल्पित कराया और सभी को छुआछूत के भेदभाव से ऊपर उठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने पर सहमत किया ।

माताजी ने अश्वमेघ शृंखला के क्रम में सन् १९९३ में ही तीन बार विविध देशों में जाकर भारतीय संस्कृति का शंखनाद किया । आज भी आदर्श और दहेज रहित विवाह, परिवारों में संस्कार, कुरीति उन्मूलन, पर्यावरण संरक्षण आदि आन्दोलनों से जुड़कर लाखों लोग राष्ट्र निर्माण में लगे हैं यह उनके विशाल मातृत्व का परिणाम है, इसीलिए गुरुदेव भी स्वयं उन्हें माताजी कहकर पुकारते थे ।

Wednesday, July 30, 2008

श्रीराम शर्मा

पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य भारत के एक युगदृष्टा मनीषी थे जिन्होने अखिल भारतीय गायत्री परिवार की स्थापना की। उनने अपना जीवन समाज की भलाई तथा सांस्कृतिक व चारित्रिक उत्थान के लिये समर्पित कर दिया। उन्होने आधुनिक व प्राचीन विज्ञान व धर्म का समन्वय करके आध्यात्मिक नवचेतना को जगाने का कार्य किया ताकि वर्तमान समय की चुनौतियों का सामना किया जा सके। उनका व्यक्तित्व एक साधु पुरुष, आध्यात्म विज्ञानी, योगी, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, लेखक, सुधारक, मनीषी व दृष्टा का समन्वित रूप था।


पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य (२० सितम्बर १९११ - ०२ जून १९९०) का जन्म आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् १९६७ (२० सितम्बर, १९११) को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आँवलखेड़ा ग्राम में (जो लतेसर मार्ग पर आगरा से पन्द्रह मील की दूरी पर स्थित है) हुआ था। उनका बाल्यकाल व कैशोर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता । वे जन्मे तो थे एक जमींदार घराने में, जहाँ उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा आस-पास के, दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे, किन्तु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत् विचलित रहता था । साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे । छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उनने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे । किसे मालूम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आयी यह सत्ता वस्तुतः अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी । जाति-पाँति का कोई भेद नहीं । जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवा कर उनने घरवालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ । उन्हें किशोरावस्था में ही समाज सुधार की रचनात्मक प्रवृत्तियाँ उनने चलाना आरंभ कर दी थीं । औपचारिक शिक्षा स्वल्प ही पायी थी । किन्तु, उन्हें इसके बाद आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि, जो जन्मजात प्रतिभा सम्पन्न हो वह औपचारिक पाठ्यक्रम तक सीमित कैसे रह सकता है । हाट-बाजारों में जाकर स्वास्थ्य-शिक्षा प्रधान परिपत्र बाँटना, पशुधन को कैसे सुरक्षित रखें तथा स्वावलम्बी कैसे बनें, इसके छोटे-छोटे पैम्पलेट्स लिखने, हाथ की प्रेस से छपवाने के लिए उन्हें किसी शिक्षा की आवश्यकता नहीं थी । वे चाहते थे, जनमानस आत्मावलम्बी बने, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान उसका जागे, इसलिए गाँव में जन्मे । इस लाल ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व उसके द्वारा हाथ से कैसे कपड़ा बुना जाय, अपने पैरों पर कैसे खड़ा हुआ जाय-यह सिखाया ।

पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् १९२६ में उनके घर की पूजास्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आधार थी, जबसे महामना पं.मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, उनकी गुरुसत्ता का आगमन हुआ । अदृश्य छायाधारी सूक्ष्म रूप में । उनने प्रज्ज्वलित दीपक की लौ में से स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में सम्पन्न क्रिया-कलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आये हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकलाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषिसत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं । चार बार कुछ दिन से लेकर एक साल तक की अवधि तक हिमालय आकर रहने, कठोर तप करने का भी उनने संदेश दिया एवं उन्हे तीन संदेश दिए -

१. गायत्री महाशक्ति के चौबीस-चौबीस लक्ष्य के चौबीस महापुरश्चरण जिन्हें आहार के कठोर तप के साथ पूरा करना था ।

२. अखण्ड घृतदीप की स्थापना एवं जन-जन तक इसके प्रकाश को फैलाने के लिए समय अपने ज्ञानयज्ञ अभियान चलाना, जो बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के १९३८ में प्रथम प्रकाशन से लेकर विचार-क्रान्ति अभियान के विश्वव्यापी होने के रूप में प्रकट हुआ ।

३. चौबीस महापुरश्चरणों के दौरान युगधर्म का निर्वाह करते हुए राष्ट्र के निमित्त भी स्वयं को खपाना, हिमालय यात्रा भी करना तथा उनके संपर्क से आगे का मार्गदर्शन लेना ।

यह कहा जा सकता है कि युग निर्माण मिशन, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान, पूज्य गुरुदेव जो सभी एक-दूसरे के पर्याय हैं, जीवन यात्रा का यह एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जिसमें भावी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया । पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक हमारी वसीयत और विरासत में लिखते हैं कि प्रथम मिलन के दिन समर्पण सम्पन्न हुआ । दो बातें गुरुसत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गई-संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना । इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी । वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन का अवधारण ही हमारे लिए नया जन्म बन गया । सद्गुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा ।

राष्ट्र के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हे उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आनेदशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी । उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं । इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था । १९२७ से १९३३ तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक- स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों-सखाओं-मार्गदर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये । छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई । जेल में भी जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटै । आसनसोल जेल में वे पं.जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना । यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्म घट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था - प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश ।

स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान कुछ उग्र दौर भी आये, जिनमें शहीद भगतसिंह को फाँसी दिये जाने पर फैले जनआक्रोश के समय श्री अरविन्द के किशोर काल की क्रान्तिकारी स्थिति की तरह उनने भी वे कार्य किये, जिनसे आक्रान्ता शासकों प्रति असहयोग जाहिर होता था । नमक आन्दोलन के दौरान वे आततायी शासकों के समक्ष झुके नहीं, वे मारते रहे परन्तु, समाधि स्थिति को प्राप्त राष्ट्र देवता के पुजारी को बेहोश होना स्वीकृत था पर आन्दोलन के दौरान उनने झण्डा छोड़ा नहीं जबकि, फिरंगी उन्हें पीटते रहे, झण्डा छीनने का प्रयास करते रहे । उन्होंने मुँह से झण्डा पकड़ लिया, गिर पड़े, बेहोश हो गये पर झण्डे का टुकड़ा चिकित्सकों द्वारा दाँतों में भींचे गये टुकड़े के रूप में जब निकाला गया तक सब उनकी सहनशक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गये । उन्हें तब से ही आजादी के मतवाले उन्मत्त श्रीराम मत्त नाम मिला । अभी भी भी आगरा में उनके साथ रहे या उनसे कुछ सीख लिए अगणित व्यक्ति उन्हें मत्त जी नाम से ही जानते हैं । लगानबन्दी के आकड़े एकत्र करने के लिए उन्होंने पूरे आगरा जिले का दौरा किया व उनके द्वारा प्रस्तुत वे आँकड़े तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत द्वार गाँधी जी के समक्ष पेश किये गये । बापू ने अपनी प्रशस्ति के साथ वे प्रामाणिक आँकड़े ब्रिटिश पार्लियामेन्ट भेजे, इसी आधार पर पूरे संयुक्त प्रान्त के लगान माफी के आदेश प्रसारित हुए । कभी जिनने अपनी इस लड़ाई के बदले कुछ न चाहा, उन्हें सरकार ने अपने प्रतिनिधि के साथ सारी सुविधाएँ व पेंशन दिया, जिसे उनने प्रधानमंत्री राहत फण्ड के नाम समपत कर दी । वैरागी जीवन का, सच्चे राष्ट्र संत होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है?

१९३५ के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ, जब गुरुसत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविन्द से मिलने पाण्डिचेरी, गुरुदेव, ऋषिवर रवीन्द्रनाथ टैगौर से मिलने शांति निकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गये । सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मंर्चों पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाय, यह र्निदेश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत् चलाते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, जब आगरा में सैनिक समाचार पत्र के कार्यवाहक संपादक के रूप में श्रीकृष्णदत्त पालीवाल जी ने उन्हें अपना सहायक बनाया ।

बाबू गुलाब राय व पालीवाल जी से सीख लेते हुए सतत स्वाध्यायरत रहकर उनने अखण्ड ज्योति नामक पत्रिका का पहला अंक १९३८ की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया । प्रयास पहला था, जानकारियाँ कम थीं अतः पुनः सारी तैयारी के साथ विधिवत् १९४० की जनवरी से उनने परिजनों के नाम पाती के साथ अपने हाथ से बने कागज पर पैर से चलने वाली मशीन से छापकर अखण्ड ज्योति पत्रिका का शुभारंभ किया, जो पहले तो दो सौ पचास पत्रिका के रूप में निकली, किन्तु क्रमशः उनके अध्यवसाय, घर-घर पहुँचाने, मित्रों तक पहुँचाने वाले उनके हृदयस्पर्शी पत्रों द्वारा बढ़ती-बढ़ती नवयुग के मत्स्यावतार की तरह आज दस लाख से भी अधिक संख्या में विभिन्न भाषाओं में छपती व करोड़ से अधिक व्यक्तियों द्वारा पढ़ी जाती है ।

Monday, July 21, 2008

हमारा युग निर्माण सत्संकल्प

इस सृष्टि का निर्माण, विकास और विलय परमात्मा के संकल्प से ही होता रहा है । परमात्मा के संकल्प से होता रहा है । परमात्मा की श्रेष्ठ कृति मनुष्य भी अपने समाज एवं संसार को संकल्पों के आधार पर ही बनाता-बदलता रहता है ।

श्रीराम शर्मा ने इस महत्वपूर्ण समय में जन-जन को ईश्वर के साथ भागीदारी के लिये आमंत्रित एवं प्रेरित किया है । नव सृजन की ईश्वरीय योजना का उन्होंने युग निर्माण योजना कहा है ।

युग निर्माण के ईश्वरीय संकल्प में हर नैष्ठिक की भागीदारी के लिये उन्होंने इस सत्संकल्प की रचना की है । इसके १८ सूत्र गीता के १८ अध्यायों की तरह सारगर्भित हैं । सूत्रों का गठन इस कुशलता से किया है कि यह क्षेत्र, भौगोलिक भेद और मानवीय वर्ग भेद से परे सभी साधक ईश्वरीय भागीदारी निभाते हुए अनुपम एवं अलौकिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।

व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्तर पर नियम से धीरे-धीरे, समझकर एवं श्रद्घापूवर्क पढ़ें ।

हमारा युग निर्माण सत्संकल्प
( Our Manifesto - Solemn Pledge)


१. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे |

Firmly believing in the Omnipresence of God and His unfailing justice, we pledge to abide by basic Divine principles (Dharma).

२. शरीर को भगवान का मन्दिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे |

Considering the body as the Temple of God , we will be ever watchful to keep it healthy and full of vitality by adopting the principles of self-control, order and harmony in our lives.

३. मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाये रखने के लिए स्वाध्याय और सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे |

With a view to keep our minds free from the inrush of negative thoughts and emotions, we will adopt a regular program of study of ennobling and inspiring literature (Svaadhyaaya) and up keep the company of Saints (Satsanga).


४. इन्द्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे |

We will vigilantly exercise strict control over our senses, thoughts, emotions and spending of our time and resources.


५. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे |

We will consider ourselves inseparable parts of the society and will see our good in the good of all.


६. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे |

We will abide by basic moral code, refrain from wrong doing and will discharge our duties as citizens committed to the well-being of the society.


७. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे |

We will earnestly and firmly imbibe in our lives the virtues of Wisdom, Honesty, Responsibility and Courage.


८. चारों तरफ मधुरता, स्वच्छता, सादगी और सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे |

We will constantly and sincerely endeavour to create an environment of loving kindness, cleanliness, simplicity and goodwill.


९. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे |

We will prefer failure while adhering to basic moral principles to so-called success obtained through unfair and foul means.


१०. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं , योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं , उसके सद्-विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे |

We will never evaluate a person’s greatness by his worldly success, talents and riches but by his righteous conduct and thoughts.


११. दूसरों के साथ वह व्यवहार नही करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं |

We will never do unto others what we would not like to be done unto us.


१२. हम नर-नारी के प्रति पवित्र दृष्टि रखेंगे |

Members of opposite sexes while interacting with each other will have feelings of mutual warmth and understanding based on purity of thoughts and emotions.


१३. संसार में सद-वृतियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान , पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे |

We will regularly and religiously contribute a portion of our time, talents and resources for spreading nobility and righteousness in the world.


१४. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व देंगे |

We will give precedence to discriminating wisdom over blind traditions.


१५. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नव-सृजन की गतिविधियों में पूरी रूचि लेंगे |

We will actively involve ourselves in bringing together persons of goodwill in resisting evil and injustice and in promoting New Creation.


१६. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे | जाति, लिंग, भाषा, प्रांत सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे |

We will remain committed to the principles of national unity and equality of all human beings. In our conduct, we will not make any discrimination between person and person on the basis of caste, creed, colour, religion, region, language or sex.


१७. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है , इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरो को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा |

We firmly believe that each human being is the maker of his own destiny. With this conviction, we will uplift and transform ourselves and help others in doing so. We believe the world will then automatically change for the better.


१८. "हम बदलेंगे-युग बदलेगा""हम सुधरेंगे- युग सुधरेगा" इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है |

Our Motto is : "Ham Badalenge - Yug Badalegaa", "Ham Sudharenge - Yug Sudharegaa".When we transform ourselves, the world will be transformed. When we reform ourselves, the world will be reformed.


Sunday, July 20, 2008

युग-निर्माण योजना : एक दृष्टि में

युग-निर्माण योजना : एक दृष्टि में

लक्ष्य एवं उद्‌देश्य :
  • मनुष्य में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्ग का अवतरण।
  • व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण।
  • स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन, सभ्य समाज।
  • आत्मवत्‌ सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुंबकम्‌।
  • एक राष्ट्र, एक भाषा, एक धर्म, एक शासन।
  • लिंगभेद, जातिभेद, वर्गभेद से ऊपर उठकर सबको विकास का अवसर।
योजना के उद्‌घोषक-विस्तारक :
  • युगऋषि वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं वन्दनीया माता भगवती देवी शर्मा
  • प्रखर प्रज्ञा - सजल श्रद्धा।
तीन समर्थ आयाम :
  • योजना-शक्ति-ईश्वर की
  • अनुशासन-संरक्षण-ऋषियों का
  • पुरुषार्थ-सहकार-सत्पुरुषों का।
आत्मनिर्माण के दो सूत्र :
  • उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श कत्र्तृत्व
  • सादा जीवन - उच्च विचार।
हमारे आधारभूत कार्यक्रम :
  • नैतिक क्रांति, बौद्धिक क्रांति, सामाजिक क्रांति
  • धर्मतंत्र-आधारित विविध माध्यमों से लोकशिक्षण
  • गायत्री-सामूहिक विवेकशीलता एवं यज्ञ-सहकारितायुक्त सत्कर्म।
हमारा उद्‌घोष :
  • हम बदलेंगे-युग बदेलगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा
  • इक्कीसवीं सदी - उज्ज्वल भविष्य
  • सबकी सेवा - सबसे प्रेम।
हमारा प्रतीक :
  • लाल मशाल-समग्र क्रान्ति के लिए सामूहिक सशक्त प्रयास-युग शक्ति का विकास।
हमारा संविधान :
  • युग निर्माण सत्संकल्प के v} सूत्र।
हमारी ध्रुव मान्यताएँ :
  • मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।
  • जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।
  • नर-नारी परस्पर प्रतिद्वन्द्वी नहीं, पूरक हैं।
जीवन निर्माण के चार सूत्र :
  • साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा।
आध्यात्मिक जीवन के तीन आधार :
  • उपासना, साधना, आराधना।
प्रगतिशील जीवन के चार चरण :
  • समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी।
समर्थ जीवन के चार स्तंभ :
  • इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम, विचार संयम।
आत्मिक प्रगति के चार चरण :
  • आत्मसमीक्षा, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण, आत्मविकास।
परिवार निर्माण के पंचशील :
  • श्रमशीलता, सुव्यवस्था, शालीनता (शिष्टता), सहकारिता, मितव्ययिता।
तीन को परिष्कृत करें :
  • स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर।
तीन की साधना करें :
  • ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग।
तीन का सन्तुलित समन्वय करें :
  • भावना, विचारणा, क्रिया-प्रक्रिया।
तीन का विकास करें :
  • श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा।
तीन को सुधारें :
  • गुण, कर्म, स्वभाव।
तीन को सँवारें :
  • चिंतन, चरित्र, व्यवहार।
तीन को त्यागें :
  • लोभ, मोह, अहंकार।
  • वासना, तृष्णा, अहंता
  • पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा।
तीन को धारण करें :
  • ओजस्‌, तेजस्‌, वर्चस्‌।
तीन का सम्मान करें :
  • संत, सुधारक, शहीद।
सात आन्दोलन :
  • साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलम्बन, नारी जागरण, पर्यावरण, व्यसन मुक्ति एवं कुरीति उन्मूलन।
तीन अभियान :
  • प्रचारात्मक, रचनात्मक, संघर्षात्मक।
प्रचारात्मक अभियान :
  • जन-जन तक युगनिर्माण का संदेश।
रचनात्मक अभियान :
  • नव सृजन में प्रतिभाओं का रचनात्मक सहयोग।
संघर्षात्मक अभियान :
  • सृजन के मार्ग में आने वाली बाधाओं का निवारण।
विचार क्रान्ति अभियान, शान्तिकुंज, हरिद्वार, उत्तरांचल (भारत)